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चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः। आप्रा॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षं॒ सूर्य॑ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

citraṁ devānām ud agād anīkaṁ cakṣur mitrasya varuṇasyāgneḥ | āprā dyāvāpṛthivī antarikṣaṁ sūrya ātmā jagatas tasthuṣaś ca ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

चि॒त्रम्। दे॒वाना॑म्। उत्। अ॒गा॒त्। अनी॑कम्। चक्षुः॑। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। अ॒ग्नेः। आ। अ॒प्राः॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। अ॒न्तरि॑क्षम्। सूर्यः॑। आ॒त्मा। जग॑तः। त॒स्थुषः॑। च॒ ॥ १.११५.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:115» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:7» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ६ छः ऋचावाले एकसौ पन्द्रहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अनीकम्) नेत्र से नहीं देखने में आता तथा (देवानाम्) विद्वान् और अच्छे-अच्छे पदार्थों वा (मित्रस्य) मित्र के समान वर्त्तमान सूर्य वा (वरुणस्य) आनन्द देनेवाले जल, चन्द्रलोक और अपनी व्याप्ति आदि पदार्थों वा (अग्नेः) बिजुली आदि अग्नि वा और सब पदार्थों का (चित्रम्) अद्भुत (चक्षुः) दिखानेवाला है, वह ब्रह्म (उदगात्) उत्कर्षता से प्राप्त है। जो जगदीश्वर (सूर्य्यः) सूर्य्य के समान ज्ञान का प्रकाश करनेवाला विज्ञान से परिपूर्ण (जगतः) जङ्गम (च) और (तस्थुषः) स्थावर अर्थात् चराचर जगत् का (आत्मा) अन्तर्यामी अर्थात् जिसने (अन्तरिक्षम्) आकाश (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमिलोक को (आ, अप्राः) अच्छे प्रकार परिपूर्ण किया अर्थात् उनमें आप भर रहा है, उसी परमात्मा की तुम लोग उपासना करो ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - जो देखने योग्य परिमाणवाला पदार्थ है वह परमात्मा होने को योग्य नहीं। न कोई भी उस अव्यक्त सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर के विना समस्त जगत् को उत्पन्न कर सकता है और न कोई सर्वव्यापक, सच्चिदानन्दस्वरूप, अनन्त, अन्तर्यामी, चराचर जगत् के आत्मा परमेश्वर के विना संसार के धारण करने, जीवों को पाप और पुण्यों को साक्षीपन और उनके अनुसार जीवों को सुख-दुःख रूप फल देने को योग्य है। न इस परमेश्वर की उपासना के विना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के पाने को कोई जीव समर्थ होता है, इससे यही परमेश्वर उपासना करने योग्य इष्टदेव सबको मानना चाहिये ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तत्रादावीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ।

अन्वय:

हे मनुष्या यदनीकं देवानां मित्रस्य वरुणस्याग्नेश्चित्रं चक्षुरुदगाद्यो जगदीश्वरः सूर्य इव विज्ञानमयो जगतस्तस्थुषश्चात्मा योऽन्तरिक्षं द्यावापृथिवी चाप्राः परिपूरितवानस्ति तमेव यूयमुपाध्वम् ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (चित्रम्) अद्भुतम् (देवानाम्) विदुषां दिव्यानां पदार्थानां वा (उत्) उत्कृष्टतया (अगात्) प्राप्तमस्ति (अनीकम्) चक्षुरादीन्द्रियैरप्राप्तम् (चक्षुः) दर्शकं ब्रह्म (मित्रस्य) सुहृद इव वर्त्तमानस्य सूर्यस्य (वरुणस्य) आह्लादकस्य जलचन्द्रादेः (अग्नेः) विद्युदादेः (आ) समन्तात् (अप्राः) पूरितवान् (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (सूर्यः) सवितेव ज्ञानप्रकाशः (आत्मा) अतति सर्वत्र व्याप्नोति सर्वान्तर्यामी (जगतः) जङ्गमस्य (तस्थुषः) स्थावरस्य (च) सकलजीवसमुच्चये ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - न खलु दृश्यं परिच्छिन्नं वस्तु परमात्मा भवितुमर्हति, नो कश्चिदप्यव्यक्तेन सर्वशक्तिमता जगदीश्वरेण विना सर्वस्य जगत उत्पादनं कर्त्तुं शक्नोति, नैव कश्चित् सर्वव्यापकसच्चिदानन्दस्वरूपमनन्तमन्तर्यामिणं सर्वात्मानं परमेश्वरमन्तरा जगद्धर्त्तुं जीवानां पापपुण्यानां साक्षित्वं फलदानं च कर्त्तमर्हति, नह्येतस्योपासनया विना धर्मार्थकाममोक्षान् लब्धुं कोऽपि जीवः शक्नोति, तस्मादयमेवोपास्य इष्टदेवः सर्वैर्मन्तव्यः ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात सूर्य शब्दाने ईश्वर व सूर्यलोकाच्या अर्थाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - जो दृश्यमान परिमाणयुक्त पदार्थ असतो तो परमात्मा नसतो. कोणीही त्या अव्यक्त सर्वशक्तिमान जगदीश्वराखेरीज संपूर्ण जगाला उत्पन्न करू शकत नाही. सर्वव्यापक, सच्चिदानंदस्वरूप अनंत, अंतर्यामी, चराचर जगाचा आत्मा अशा परमेश्वराखेरीज संसार धारण करणे, जीवांच्या पापपुण्याच्या साक्षी असणे, त्यानुसार जीवांना सुख दुःखरूपी फळ देणे, हे कोणी करू शकत नाही. परमेश्वराच्या उपासनेशिवाय धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त करण्यास जीव समर्थ बनू शकत नाही. त्यासाठी सर्वांनी परमेश्वरच उपासना करण्यायोग्य इष्टदेव आहे, हे मानले पाहिजे. ॥ १ ॥